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Showing posts from December, 2020

स्वानसी: मौन की यात्रा करता एक शहर !

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लंदन से जब मैं बस में बैठा तो मुझे पता नहीं था कि मैं जिस रास्ते पर जा रहा हूँ वह रास्ता मुझे प्रकृति के बीच बसी एक अनजान और ऐतिहासिक दुनिया की ओर ले जा रहा है जहाँ एक अतीत बरसों से छुपा हुआ था। ब्रिस्टल होते हुए जब हमारी बस कार्डिफ़ पहुँची तो वहाँ की मुख्य सड़क पर से जो विशाल पुरानी इमारतें दिखाई दे रही थीं , वे मुझे आकर्षित करने के साथ-साथ अचंभित भी कर रही थीं। इन विशाल ऐतिहासिक इमारतों के बारे में सोच ही रहा था कि अचानक खिड़की की तरफ़ ध्यान गया तो मैंने पाया कि बस सड़कों पर दौड़ती हुई एक बार फिर प्रकृति के आगोश में आ चुकी है। और सड़क के दूसरी ओर विशाल समुद्र भी अब दिखाई दे रहा था। समुद्र के किनारे चलते हुए जब आप अपने आप से मिलते हैं तो पाते हैं कि ज़िंदगी रात और जज़्बात में सिमट गई है। एक तरफ़ लहरों का उठता शोर आपको अपने मन के आवेग के साथ बहा ले जाने को आतुर तो दूसरी तरफ़ आसमान में ठहरा हुआ चाँद आपको अपने साथ बात करने के लिए उत्साहित करता है। जी हाँ , इस बार नियति मुझे लेकर पहुँची यूनाइटेड किंगडम के एक शहर, स्वानसी।  यहाँ की प्राचीन भाषा में स्वानसी शब्द का अर्थ है ‘नदी का मुँह’। यह शहर तावे

कविताएँ

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  एक स्वप्न कल रात देखा था एक स्वप्न झकझोर गया था भीतर तक तय नहीं कर पाया , क्या था आखिर भ्रम या कुछ और... ज़िन्दगी की इस भागदौड़ में आते भी रफ्तार से हो। और चले जाते हो समझ आने के पहले ही। कहाँ जाते हो तुम , किसी और कि नींद में या फिर वहाँ, जहाँ से तुम कभी लौट ना सको। कभी-कभी आराम भी कर लिया करो , किसी की  आँखों  में। किसी की आँखों में रह लेने से खत्म नहीं होंगे तुम। तुम्हारा टूटना भी एक अजीब-सी बेचैनी देता है मुझे। तुम्हारा चले जाना मेरे एक हिस्से का चले जाना है। रुका करो इन आँखों में क्योंकि आँखें खाली नहीं होती इनमें आँसू आ जाते है। और रुकना भी एक ज़रूरी प्रक्रिया है, इस अनंत ब्रह्मांड की।   ' या ' तथा ' और ' जब ' या ' तथा ' और ' कि लड़ाई होती है हमेशा आज के संदर्भ में ' या ' की ही जीत होती है पहले तुम ' और ' मैं हुआ करते थे अब हमेशा तुम ' या ' मैं होते हैं। इस ' या ' ने तुम्हारे और मेरे बीच आकर हमारा अस्तित्व ही खत्म कर दिया है। तुम पहले तुम थी मैं पहले  मैं  था ' तुम ' औ

"रेवा संग महेश्वर यात्रा........."

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ढलती शाम को महेश्वर में जैसे ही हमारी वैन दाखिल हुई एक अजीब सी अनुभूति ने मन को छू लिया। पुराने  बाज़ारों की शाम की रौनक। तंग गालियाँ, जहाँ एक-दूसरे से सटे हुए घर और दुकानें। अधिकांश घरों में पुराने मंदिर और अपने वैभवशाली इतिहास को याद करते हुए कुछ पुराने लकड़ी के नक़्क़ाशीदार घर। शहरों की आपाधापी से दूर कुछ लोग,जिनकी बाज़ार की दुकानों पर रोज शाम को बैठक हुआ करती है। हमारी वैन ने सीधे घाट का रुख किया,और हम अपना सारा सामान वैन में रख कर अपने-अपने कैमरे संभालते हुए जा पहुँचे नर्मदा घाट पर। घाट जो शाम को अक्सर टहलने आने वाले लोगों से पटा हुआ रहता है। आज भी था। नर्मदा अपने वही पुराने स्वरूप को लेकर पूर्व से पश्चिम की ओर अनवरत यात्रा कर रही थी। दोपहर की उमस से परेशान अधिकांश लोग स्नान के लिए तैयार थे। और कुछ वयस्क लोग थे जो अपने अंतिम पड़ाव में अपने किये हुए पाप को धोने की चेष्टा कर रहे थे। जिसे हिंदू धर्म में पुण्य स्नान कहा जाता है। पाप को धोकर पुण्य की कामना!!!!! अजीब है। परंतु हिन्दू धर्म में मान्यता है। नर्मदा भी शायद यही कार्य अनवरत किये जा रही है। इतने भव्य और गौरवशाली इतिहास को अप

ख़ामोश तान से एक विलंबित मुलाक़ात !

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ख़ामोशी आपको अतीत में ले जाती है। जहाँ केवल नीरवता बहती है। लेकिन जहाँ सुरों का रस बहता हो वहाँ जीवन रस हमेशा रहता है किसी दूसरे रूप में! रात के आठ बजे का समय और मैं ग्वालियर के क़िले पर खड़े होकर तानसेन को महसूस करने की कोशिश कर रहा था। तभी अंतर्मन से एक आवाज़ आयी-"तुम यहाँ से कहाँ जाओगे?" सवाल भौगोलिक से कहीं ज़्यादा आध्यात्मिक था। मैं अंदर से खाली-सा महसूस कर रहा था। मैंने अपने आप को उत्तर देना चाहा लेकिन मेरी अपनी आवाज़ उस विशाल स्थल पर खोखली-सी लग रही थी। मैंने उस रात की हवा में गहरी साँस ली। मैं सोचता हुआ कुछ पल ख़ामोश रहा। अपने आसपास असहज-सा धुँधलका महसूस कर रहा था मैं! जब पूर्वानुमान की कँपकँपी आपके शरीर में एक थिरकन पैदा करती है तब इस तरह की स्थिति में एक अजीब-सी बेचैनी होती है। अनिश्चित-सा मैं वहाँ पल-भर खड़ा रहा और सुनने की कोशिश करने लगा। जो एकमात्र मायूस आवाज़ मुझको सुनाई दी, वह शहर के बाहर उस मक़बरे की तरफ से आती हुई ठंडी हवा की आवाज़ थी जो क़िले के बाहर बनी समय की खाई से बहकर आ रही थी। वैसे भी ऐतिहासिक चीज़ों से आती हुई आवाज़ें सरकार की उदासीनता के कारण आजकल कराह रह

व्यर्थ की नए अर्थों में तलाश...

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आकाश अपने फैले खुले दो हाथ के साथ पुकार रहा था और ठंडी हवा बारिश के साथ पुकार रही थी मानों   कह रही हो चलो तुम्हें ले चलूँ   अपने साथ   उस एकांत में जहाँ कभी बुद्धिस्ट अपना ज्ञानार्जन करते थे। शहरों और शोर   से दूर हरियाली के बीच एकांत   में। हाँ , इसी एकांत को तो खोज रहे थे वे लोग जो मनुष्य को पूर्णता की ओर   ले जाते है।            जिंदगी की इस भाग दौड़ , नौकरी की परेशानी , कमाते रहने और पेट पालने   की चिंता के बीच इस तरह का एकांत मन को   एक सुकून देता है। अपने आप को समझने और खुले तौर   पर सोचने की आज़ादी भी। परन्तु हम कहाँ कर पाते हैं ये सब। सिर्फ़ सोचना भर तो कतई पर्याप्त नहीं होता। अपने इस सोचे हुए को रचा जाना भी एक कला है। और शायद इसलिए ये एक कठिन काम है। उस सोचे हुए को रच कर अपनी दुनिया बनाना वाकई असंभव नहीं तो कठिन ( दुःसाध्य ) काम है। जब आप अपने सोचे हुए और रचे हुए को तोड़ पाने का साहसिक कार्य करते है तब आप कुछ नया रच पाते है।               वक़्त शायद धीरे - धीरे उसी और बढ़ा जा रहा है , जहाँ शायद कुछ नया रचा जाना बेहद ज़रूरी है। ज़िंदगी में कुछ नया अपने द्वारा रचा जाना बेहद ख़ुशी