ख़ामोश तान से एक विलंबित मुलाक़ात !
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ख़ामोशी आपको अतीत में ले जाती है। जहाँ केवल नीरवता
बहती है। लेकिन जहाँ सुरों का रस बहता हो वहाँ जीवन रस हमेशा रहता है किसी दूसरे
रूप में! रात के आठ बजे का समय और
मैं ग्वालियर के क़िले पर खड़े होकर तानसेन को महसूस करने की कोशिश कर रहा था। तभी
अंतर्मन से एक आवाज़ आयी-"तुम यहाँ से कहाँ जाओगे?"
सवाल
भौगोलिक से कहीं ज़्यादा आध्यात्मिक था।
मैं
अंदर से खाली-सा महसूस कर रहा था। मैंने अपने आप को उत्तर देना चाहा लेकिन मेरी
अपनी आवाज़ उस विशाल स्थल पर खोखली-सी लग रही थी। मैंने उस रात की हवा में गहरी
साँस ली। मैं सोचता हुआ कुछ पल ख़ामोश रहा। अपने आसपास असहज-सा धुँधलका महसूस कर
रहा था मैं!
जब
पूर्वानुमान की कँपकँपी आपके शरीर में एक थिरकन पैदा करती है तब इस तरह की स्थिति
में एक अजीब-सी बेचैनी होती है।
अनिश्चित-सा
मैं वहाँ पल-भर खड़ा रहा और सुनने की कोशिश करने लगा। जो एकमात्र मायूस आवाज़ मुझको
सुनाई दी, वह शहर के बाहर उस मक़बरे की तरफ से आती हुई ठंडी हवा की आवाज़ थी जो क़िले
के बाहर बनी समय की खाई से बहकर आ रही थी। वैसे भी ऐतिहासिक चीज़ों से आती हुई
आवाज़ें सरकार की उदासीनता के कारण आजकल कराह रही है।
ग्वालियर का वह क़िला जिसमें उन्होंने
अपना कुछ समय व्यतीत किया था,आज वह किसी मक़बरे की भाँति ख़ामोश था। केवल शाम को हुई
पूजा के समय की धूपबत्तियों की हल्की-सी सुगंध ही वहाँ जीवन का संकेत दे रही थी।
तानसेन का वहाँ से जाना और फिर कभी लौटकर न आना ग्वालियर के उस क़िले के लिए बहुत
दुर्भाग्यपूर्ण था। एक ख़ामोश खड़ी कब्र जैसा है वह क़िला जैसे हमेशा-हमेशा के लिए,
किसी चीज़ के घटित होने का इंतज़ार करता हुआ शायद अनन्तकाल तक खामोश खड़े अपने पुराने
समय के लौट आने का इंतज़ार कर रहा है।
जब
मैं तानसेन के मक़बरे पर पहुँचा तब मक़बरे की दहलीज़ के भीतर पैर रखते हुए लगा, बाहर
की दुनिया अचानक ख़ामोश हो गयी है, तानसेन की प्रार्थना को सुनने के लिए! कोई
ट्रैफिक की घरघराहट नहीं, कोई दूसरी बाहरी आवाज़ नहीं! सिर्फ़ एक निचाट ख़ामोशी जो
मक़बरे के एक छोर से दूसरे छोर के बीच कुछ इस तरह गूँजती जान पड़ती थी मानों मक़बरा
ख़ुद से ही फुसफुसाता हुआ बतिया रहा हो। लगा सुरों का बादशाह अब अपने गुरु
मोहम्मद गौस की बगल में लेटा हुआ शायद अपनी सुरों की साधना को एक खामोश-सी
प्रार्थना में तब्दील कर चुका है। उनके साथ संगत पर अब गिलहरी,नेवले, कबूतरों की
फड़फड़ाहट, आसपास के पेड़, और वहाँ बहती हवा है। पीछे कहीं राग मियाँ की मल्हार की
बंदिश (ताल-कहरवा) सुनाई दे रही थी-
बोले
रे पपीहरा /पपीहरा नित मन तरसे, /नित मन प्यासा /नित मन प्यासा,/नित मन तरसे /बोले
रे...
कुछ
वृद्ध लोग भी मक़बरे के आसपास थे। और कुछ बच्चे जो शायद वहाँ लगे इमली के पेड़ की पत्तियाँ खा रहे थे।
जिनके बारे में मशहूर है कि उन पत्तियों को चबाने से आवाज़ मधुर और सुरीली होती है।
सोलहवीं
शताब्दी में बना यह मक़बरा कई सारे स्तंभों से मिलकर बना हैं। ये स्तंभ एक आयताकार
ऊँचे चबूतरे पर बने हुए हैं।
अंदर
की हवा में पुराने समय की, एक राजसी गंध थी। जिसमें कबूतरों की बीट की तीख़ी गंध,
पत्थर के स्थापत्य की मिट्टी की गंध का पुट था। और मुग़लकालीन
शैली में बना उनका मक़बरा आज भी उनके असाधारण होने के बावजूद उनकी इच्छा के मुताबिक़
साधारण रूप में अपने गुरु की बग़ल में खड़ा शायद उनकी सेवा में हाज़िर है।
तानसेन के मक़बरे पर कबूतरों की फड़फड़ाहट भी एक संगीतमय रस और जीवंत माहौल पैदा कर रही थी। शांति से सोये हुए तानसेन अपने होने और सोने के बीच के फ़र्क को शायद संगीत से जोड़ रहे थे। नीले रंग की चादर में लिपटी उनकी कब्र एक शांति का संदेश दे रही थी जो उन्होंने अपने रहते अकबर और बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचंद्र के बीच स्थापित करने की कोशिश की थी।
कानों में कहीं दूर से एक बहती हुई आवाज़ आ रही थी जो किसी अँधेरे कोने की गहराई से एक नूर के रूप में आती हुई महसूस हो रही थी। इमारत के उदर से आता एक गड़गड़ाता हुआ कंठ स्वर,जो अब ख़ामोश सी प्रार्थना करता हुआ ज़मीन में दफ़्न है। महसूस कर पा रहा था कि उनका गायन अब चुप्पी है, प्रेम की। लगता था जैसे उनका मर्म बोल रहा है। जो उनके कब्र से उठकर संगीत की ध्वनि के रूप में मेरी हड्डियों में आकांक्षा की अप्रत्याशित लहर भर रहा था।
ये अंतर्संबंध दिखाई भले न देते हों लेकिन वे मौजूद है, सतह के ठीक नीचे दफ़्न! चीटियाँ और पेड़-पौधे उनसे संगीत की तालीम ले रहे हैं। गिलहरियाँ और नेवले उनसे सुरों की बारीकियाँ सीखने क़ब्र के आसपास चहलकदमी कर रहे है। कबूतरों की गुटरगूँ से लेकर चमकादड़ों की फड़फड़ाहट एक संगीतमय माहौल पैदा कर रही थी।
उनकी क़ब्र के पास खड़ा मैं उनके अंतिम समय के बारे में सोच रहा था। शायद अपने अंतिम समय में वे देह और उसकी आत्मा में उस हद तक छीजते गए जब उनको लगने लगा कि वे पारदर्शी हो चुके हैं।
लग रहा था, जगत की रोशनी, वह बेशक़ीमती नूर जो आवाज़ के रूप में हमारे साथ थी, हमेशा-हमेशा के लिए बहुत दूर जा चुकी है।
रात जैसे एक धुँधलके में तब्दील हो रही
थी और मन में सच्चाई का वह क्षण लिए मैं, लौट
रहा था,एक खामोश तान से एक विलंबित मुलाकात कर।
-श्रीकांत
आलेख अहा! ज़िंदगी (दैनिक भास्कर) के oct-2019
के
अंक में एवं बिजूका ब्लॉग पर प्रकाशित।
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Comments
Exemplary writing sir. Keep writing. The woods are lovely dark and deep and miles to go before I sleep . Now you are carving a niche for yourself. Stay happy and stay bullish for writing.
ReplyDeleteSir/Madam,
DeleteI don't know anything about you but thank you very much for coming to my blog and for your appreciation. I would be very happy to know about you.🙏☺️