स्वानसी: मौन की यात्रा करता एक शहर !

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लंदन से जब मैं बस में बैठा तो मुझे पता नहीं था कि मैं जिस रास्ते पर जा रहा हूँ वह रास्ता मुझे प्रकृति के बीच बसी एक अनजान और ऐतिहासिक दुनिया की ओर ले जा रहा है जहाँ एक अतीत बरसों से छुपा हुआ था। ब्रिस्टल होते हुए जब हमारी बस कार्डिफ़ पहुँची तो वहाँ की मुख्य सड़क पर से जो विशाल पुरानी इमारतें दिखाई दे रही थीं , वे मुझे आकर्षित करने के साथ-साथ अचंभित भी कर रही थीं। इन विशाल ऐतिहासिक इमारतों के बारे में सोच ही रहा था कि अचानक खिड़की की तरफ़ ध्यान गया तो मैंने पाया कि बस सड़कों पर दौड़ती हुई एक बार फिर प्रकृति के आगोश में आ चुकी है। और सड़क के दूसरी ओर विशाल समुद्र भी अब दिखाई दे रहा था। समुद्र के किनारे चलते हुए जब आप अपने आप से मिलते हैं तो पाते हैं कि ज़िंदगी रात और जज़्बात में सिमट गई है। एक तरफ़ लहरों का उठता शोर आपको अपने मन के आवेग के साथ बहा ले जाने को आतुर तो दूसरी तरफ़ आसमान में ठहरा हुआ चाँद आपको अपने साथ बात करने के लिए उत्साहित करता है। जी हाँ , इस बार नियति मुझे लेकर पहुँची यूनाइटेड किंगडम के एक शहर, स्वानसी।  यहाँ की प्राचीन भाषा में स्वानसी शब्द का अर्थ है ‘नदी का मुँह’। यह शहर तावे

कविताएँ

 एक स्वप्न


कल रात देखा था एक स्वप्न
झकझोर गया था भीतर तक
तय नहीं कर पाया,क्या था आखिर
भ्रम या कुछ और...

ज़िन्दगी की इस भागदौड़ में
आते भी रफ्तार से हो।
और चले जाते हो
समझ आने के पहले ही।

कहाँ जाते हो तुम,
किसी और कि नींद में
या फिर वहाँ, जहाँ से तुम कभी
लौट ना सको।

कभी-कभी आराम भी कर लिया करो,
किसी की 
आँखों में।
किसी की आँखों में रह लेने से
खत्म नहीं होंगे तुम।

तुम्हारा टूटना भी एक
अजीब-सी बेचैनी देता है मुझे।
तुम्हारा चले जाना
मेरे एक हिस्से का चले जाना है।

रुका करो इन आँखों में
क्योंकि आँखें खाली नहीं होती
इनमें आँसू आ जाते है।

और रुकना भी एक ज़रूरी प्रक्रिया है,
इस अनंत ब्रह्मांड की।

 


'या' तथा 'और'

जब 'या' तथा 'और' कि लड़ाई होती है
हमेशा आज के संदर्भ में 'या' की ही जीत होती है
पहले तुम 'और' मैं हुआ करते थे
अब हमेशा तुम 'या' मैं होते हैं।

इस 'या' ने तुम्हारे और मेरे बीच आकर
हमारा अस्तित्व ही खत्म कर दिया है।
तुम पहले तुम थी

मैं पहले मैं था
'तुम' और 'मैं' मिलकर ही तो 'हम' बने थे
तो फिर हमारे बीच ये 'या' कहाँ से आ गया।


तुम पर लिखी हुई कवितायें

तुम पर लिखी हुई कवितायें
मंच पर नही सुना पाता मैं
वे मन के अंदर ही
धधकती रहती है 
शांत जगह में


शायद वे
वहाँ ज्यादा सुरक्षित है,
नहीं कर पाती वे
मन से मंच तक की यात्राएँ
अटक कर रह जाती है,
मन में या होठों की दरारों के भीतर

टकराकर गूँजती रहती हैं
अंतस में
और पकती रहती है
अँधेरे की धीमी आँच पर

इन्हें सुनना है तो
मन के मंच पर आकर सुनो
जहाँ मन और मंच एकाकार हो,
रह जाते है 
शेष केवल तुम और मैं

 


घर और व्यक्ति


हर व्यक्ति का एक घर होता है
हर घर का एक व्यक्ति होता हैं
घर की उम्र
उसकी उम्र के साथ बीतती जाती है

उसके सारे काम
घर के लिए ही होते है
और घर के सारे काम भी
उस के लिये होते है

उसके के मन में
एक घर होता है
घर का बनना
उसका बनना होता है
और घर का नष्ट होना
अंततः उसका नष्ट होना होता है।

मकान को घर व्यक्ति बनाता है
घर से बाहर जाते ही वह
खुद से भी बाहर की ओर निकल आता है,
उसका दुख घर का दुख होता है।

उसका रोना घर का रोना है
उसकी खुशी भी घर की खुशी होती है
इतनी संवेदहीनता के माहौल में
घर का संवेदनशील होना
उसके और घर के एकाकार हो जाने के लिए काफी हैं।

 

मन का गिरना

मेरा गिरना मन का गिरना है
खुद का गिरना
जो शायद कही दर्ज नहीं हुआ।
दर्ज होने लायक भी तो हो

कुछ घटनाएँ बिना दर्ज हुए घट जाती है।
ये घटनाएँ इतिहास में दर्ज नहीं होती
और न ही इनका कोई ओर या छोर होता है
बस घट जाती है ये बिना कोई आवाज़ किये

नहीं होती इनकी उपस्थिति दर्ज
और न ही कोई अवशेष होते हैं शेष
मन की टूटन की कोई आवाज़ नहीं होती
होते है कुछ अवशेष यादों के.

ये टूटन और भी गहरी होती जाती है
समय के साथ पकती रहती है
यादों की धीमी आँच पर

शेष स्मृति को जोड़ने की
असफल कोशिश करती हुई
ये स्मृतियां हो जाएगी दफ़्न
ज़मीन में गहरे कहीं

या नदी में कहीं तलहटी में
जहाँ यादें घुल जाएंगी पानी में
और बहती रहेंगी मछलियों के साथ......



इस्त्री करती हुई स्त्री


इस्त्री करती हुई स्त्री
जब कपड़ों पर से सिलवटें हटाती है,
तो अपने माथे की सिलवटों को छुपा लेती है

देती है बीच-बीच में
पानी के छींटे
इसी तरह बचा लेती है वह तपन से
कपड़ों के साथ गृहस्थी को भी।

अपने प्यार की हल्की तपिश से,
कपड़ों की सारी सिलवटों को दूर कर देती है
और रख देती है उन्हें तह करके अलमारी में
जैसा रख देता है कोई अपना कीमती सामान।

 


 शून्य का विराटपन


मैं शून्य हूँ,

हाँ वही
जो किसी के साथ खड़ा हो
तो विराट भी बना दे और
ख़ाक में भी मिला दे

निर्णय आप पर है
निर्भर भी आप पर ही करता है।

वही
जो विराट की कल्पना से परे
परंतु अपने आप में कुछ नहीं।

शून्य 1

वो समय के पहले भी था
और समय के बाद भी है।

इतिहास के पहलू में
जीवित
और थरथराता हुआ।

उसका विराटपन
असीमित है
अंतरिक्ष और आकाश से परे

जो ब्रह्मांड में
हर जगह विराजित था
और विराजमान है।

शून्य 2

इतिहास पैदा हुआ था
इसकी कोख़ से
और इसी में
विसर्जित होता आया है।

जो अतीत का भी
हो सकता है
और आज का भी।

वह न कभी बदला है
न ही कभी बदलेगा।

सत्य और असत्य,
अँधेरे और उजाले से परे।





शून्य 3

जिसका कोई अस्तित्व नहीं
पर हर जगह विद्यमान

वह मौन है
मौन की उपस्थिति
उसकी सर्वव्यापकता है।

वही तो हमेशा बचा रहता है
जो मिट के भी अमिट है।

फीनिक्स जैसा
खुद से ही उपजता-सा

किसी की भी अनुपस्थिति
उसकी उपस्थिति है।


शून्य 4

आकाश वही
धरा वही
और ये दोनों जिस पर टिके है
वह भी वही।

उसका एहसास भी
उसकी उत्पन्नता है।

उसका अपना कुछ निज
नही हैं।
जो भी है सिर्फ वहीं है।

वह मौन है,चुप है
उसका ठहराव
उसकी खामोशी है।

वर्तमान भी शून्य
और भविष्य भी शून्य।

उसकी मौजूदगी में
गूँजता
मौन का नाद है।

ना प्रारब्ध है
और ना ही अंत है वह
फिर भी अपने आप में सम्पूर्ण है।


कमीज

कमीज दिलवाई थी माँ ने
एक अपनेपन का एहसास लिए हुए थी वह
आज जब माँ नही है
तब भी उसके स्पर्श की ख़ुशबू
मौजूद है वहाँ।

उसे वैसे ही सम्हाले हुए हूँ
जैसे अपने भीतर दिल को
उसकी साज संभाल, दिल की साज़ संभाल है।

माँ के स्पर्श की महक, आज भी उसमें मौजूद है
उसका मैला होना, दिल का मैला होना है।
जेब के पीछे माँ का दिया हुआ दिल धड़कता है
जो मैला हो गया कमीज़ के साथ।

रोज़ सुबह साफ सुथरे दिल के साथ
उसे पहन कर निकलता हूँ
शाम तलक दुनिया का सारा मैल
सोख लाता हूँ दिल के साथ कमीज में।

कमीज में लिपटा हुआ मैं
पाता हूँ खुद को
माँ के आँचल में लिपटा हुआ।



बीज

अधकचरे बीज
बना लेते है एक रिश्ता
बंजर जमीन के साथ

उग आते हैं थोड़ी-सी ही जमीन में 

और बना लेते हैं 

उसके साथ एक गहरा रिश्ता 

जो दिखाई नहीं देता

बाहर की तरफ से


पनप जाते हैं वे
अधखिली धूप में
और कुछ थोड़े-से पानी में

देते हैं अपने हिस्से की थोड़ी-सी परछाई भी
थोड़ी-सी धूप
थोड़ी-सी छांव के बीच

लगे रहते है अंदर ही अन्दर
ज़मीन से अपना रिश्ता मज़बूत करने में

उनकी जड़ों में
बसा होता है चीटियों का संसार
जहाँ पलता है पूरा परिवार

मैं एक जीवन देखता हूँ
जहाँ
एक अधकचरा बीज़
अब एक भरा पूरा संसार है।

 

कंधा

निर्जन उन गर्तों में
ढूँढता फिरता हूँ तुम्हें

ताकि सिर्फ एक बार
रख सकूँ अपना
बोझिल सर
उतार दूँ अपने मन का भार

क्योंकि झुका हुआ सिर
सिर्फ तुम पर ही अच्छा लगता है।
आँसू, सहारे के रूप में हमेशा तुम्हें ही माँगते है।

तुम्हारे मिल जाने पर उमड़ा हुआ प्यार
बहुत ही पनीला और पारदर्शी होता है।

आज की इस भागती दुनिया में
नहीं मिलते तुम कहीं भी
जो ढो सको मन का बोझ,
दे सके गहरा सुकून।

तुम एक झरोखा हो
मन की टोह पा लेने का

जहाँ सारा दुःख अपना गीलापन समेटे
उतर आता है तुम पर
लेकिन गर्त में जाने से रोकता
खुद को अँधेरे तहों में लिपटा हुआ पाता मन

खोजता हूँ तुम्हें हर तरफ
जब होता है सब तरफ
निराशा, दुःख, वैमनस्य
आती एक तुम्हारी याद है।

सोच भर लेता हूँ तुम्हें
आह भरकर
सोचता हूँ मिल जाओ कहीं
लेकिन मिलते नहीं कहीं

खोजता हुआ तुम्हें हर तरफ
लेकिन नहीं हो पाता यह सब

जब हो जाता है यात्रा का हर पड़ाव खत्म
तब आते है कई सारे एक साथ
और ले जाते है अपनी अंतिम यात्रा की ओर।



-श्रीकांत

कविताएँ बिजूका ब्लॉग पर प्रकाशित।

लिंक:https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/blog-post_11.html?m=1

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